निकहत ज़रीनः जिनके बारे में मैरी कॉम ने कहा था- वो कौन है, मैं जानती भी नहीं…

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हिंद स्वराष्ट्र फिरोज अंसारी : निकहत ज़रीन पर बात करने से पहले आप सभी के सामने क्रिकेट की एक घटना का ज़िक्र करना चाहता हूं जिसकी समानता आपको महिला बॉक्सिंग में देखने को मिलेगी.
आप सिर्फ एक नज़ारे की कल्पना करें. सचिन तेंदुलकर टेस्ट क्रिकेट में नंबर 4 पर ना सिर्फ भारत के बल्कि दुनिया के सबसे कामयाब टेस्ट बल्लेबाज़ हैं. तेंदुलकर को टेस्ट मैचों में चौथे नंबर पर बल्लेबाज़ी से हटाने के बारें में चयनकर्ता तो क्या कोई फैन भी नहीं सोच सकता था.
और क्या हुआ अगर विराट कोहली के तौर पर एक धुरंधर बल्लेबाज़ ने 2008 से सफेद गेंद की क्रिकेट में तहलका मचाना शुरु कर दिया था और हर कोई इस बात की वकालत कर रहा था कि कोहली को आखिर टेस्ट में मौक़ा क्यों नहीं दिया जा रहा?
इत्तेफाक से 2011 वर्ल्ड कप में जीत के बाद अपने करियर में अपवाद के तौर पर तेंदुलकर ने पहली बार किसी टेस्ट सिरीज़ में नहीं जाने का फ़ैसला किया.
चयनकर्ताओं ने पलक झपकते ही तेंदुलकर के स्वाभाविक उत्तराधिकारी माने जाने वाले कोहली को वेस्टइंडीज़ में खेली जाने वाली टेस्ट सिरीज़ के लिए पहली बार लाल गेंद की क्रिकेट के लिए शामिल कर लिया.
इसके अगले दो साल में ये बात और साफ होती चली गई कि तेंदुलकर का वर्चस्व अपने ढलान पर था कोहली भारतीय क्रिकेट में उभरते हुए सूरज थे.
2013 में तेंदुलकर को तत्कालीन कप्तान महेंद्र सिंह धोनी और चयनकर्ताओं ने और सबसे अहम बीसीसीआई प्रमुख एन श्रीनिवासन ने बहुत संजीदगी और सम्मान से ये संकेत दे दिये थे कि वो खेल को अलविदा कह दें क्योंकि अब युवा बल्लेबाज़ों को और मौके से वंचित नहीं किया जा सकता था.

नंवबर 2013 में तेंदुलकर ने शालीन तरीके से क्रिकेट को अलविदा कहा और कोहली ना सिर्फ नंबर 4 पर भारत के लिए स्वाभाविक पसंद बन गये बल्कि आने वाले एक दशक में उनका रुतबा भी तेंदुलकर से कहीं भी उन्नीस नहीं रहा.

लेकिन, ये बात भारतीय क्रिकेट की थी और चूंकि क्रिकेट को अब भी एक शालीन खेल माना जाता है तो दो पीढ़ी के बीच ट्रांज़िशन को भी शालीन तरीके से हैंडल कर लिया गया.
लेकिन, अब कुछ ऐसा ही नज़ारा बॉक्सिंग की दुनिया में देख लें. जो हस्ती तेंदुलकर की क्रिकेट में है वही मैरी कॉम की महिला बॉक्सिंग में है.
2020 में होने वाले टोक्यो ओलंपिक्स से पहले मैरी कॉम भी अपने वर्चस्व के दौर को पीछे छोड़ चुकी थी, और निखत ज़रीन जैसी युवा प्रतिभा ने बॉक्सिंग फ़ेडरेशन से गुहार लगाई कि 52 किलोग्राम वाले फ्लाइवेट कैटेगरी में उनका दावा कॉम से ज़्यादा मज़बूत था.
इतना ही नहीं तब के खेल मंत्री किरण रिजिजू को सार्वजनिक प्लेटफॉर्म पर खत लिखकर निखत ने गुज़ारिश की उन्हें एक फेयर ट्रयल का मौका मिले.
ज़ाहिर सी बात है, ज़रीन के इस आत्म-विश्वास को ना तो मैरी कॉम ने देखा था और ना कभी फ़ेडरेशन ने सोचा था. मैरी कॉम ने तो उस वक्त ज़बरदस्त कटाक्ष करते हुए ये भी कहा था- निखत ज़रीन, वो कौन है.. मैं तो उसको जानती भी नहीं!
लेकिन, मीडिया में ज़ोरदार बहस होने के बाद आखिरकार टोक्यो ओलंपिक्स के लिए ट्रायल्स हुए जिसमें ज़रीन को मात खानी पड़ी. इस हार के बाद ज़रीन की आंखों नम थी लेकिन ये नमी हार का दर्द नहीं बल्कि अपने आदर्श बॉक्सर से खरी-खोटी सुनने पर थे जिससे उन्हें झिंझोड़ डाला था.
बहरहाल, मैरी कॉम टोक्यो में शिरकत करती हैं और खाली हाथ लौटती है जो कि बिल्कुल अप्रत्याशित नहीं था. (हां, ये अलग बात है कि जिस तरह से हार स्वीकार करने के बाद बाद में प्रेस कांफ्रेस में मैरी कॉम ने पलटी मारी और ये तर्क दिया कि उन्हें लगा कि वो जीत गई हैं, वो एक दूसरा किस्सा है).
यहां से महिला बॉक्सिंग में मैरी कॉम का अध्याय खत्म होता है और निखत ज़रीन के तौर पर भविष्य की रुप-रेखा तैयार होने लगती है.
चूंकि, ये बॉक्सिंग का खेल है और यहां पर सीधे मुक्के से ही नतीजे तय होते हैं क्रिकेट की तथाकथित शालीन रवैयों को कोई जगह नहीं और इसलिए तेंदुलकर-कोहली वाला स्वाभाविक ट्रांजिशन आपको मैरी कॉम-ज़रीन में नहीं देखने को मिला.
लेकिन, दिल्ली में हुए उस ट्रायल्स के करीब ढाई साल बाद निखत ज़रीन का इस्तांबुल में गोल्ड मेडल जीतना ये दिखाता है कि उनका आत्म-विश्वास किसी भी मायने में कोहली के मशहूर विल-पॉवर से कम नहीं था.
कोहली को भी क्रिकेट जगत में कई बार घमंडी और अक्खड़ के तौर पर देखा लेकिन निखत ज़रीन ने अपने आक्रामक औऱ लड़ाकू रवैये के साथ साथ अपने शहर हैदराबाद की शालीनता का भी मिश्रण भी अपने रवैये में बनाया रखा जो शायद उनकी कामयाबी में एक भूमिका भी अदा करती है.
मैरी कॉम की कामयाबी पर तो एक सुपरहिट फिल्म बन चुकी है और मैरी खुद निखत को प्रेरणा देने वाली एथलीटों में सबसे ऊपर रहीं हैं जैसा कि क्रिकेट में कोहली के लिए तेंदुलकर प्रेरणा थे. भविष्य में मैरी कॉम की तरह निखत की कामयाबी पर फिल्म बने या न बने इस पर फिलहाल कुछ कहा तो नहीं जा सकता है लेकिन जिस तरह से एक परंपरावादी मुस्लिम समाज से एक लड़की का बॉक्सिंग जैसे लड़ाकू खेल में आना और उसकी यात्रा किसी भी तरह से फिल्मी कहानी से कम नहीं है.
निखत के पिता खुद क्रिकेटर बनने का अरमान रखते थे और बॉक्सिंग भी करते थे लेकिन आर्थिक हालात ने उन्हें अपने सपनों को हकीकत में बदलने का मौका नहीं दिया.
लेकिन, मोहम्मद जमील ने समाज की दकियानूसी सोच को अपनी बेटी के सपनों के साकार करने के आगे आने नहीं दिया. इतना ही नहीं, निखत की मां परवीना ने भी अपनी बेटी की ऐसी हौसला अफ़ज़ाई की जिसकी मिसाल भारतीय समाज के बेहद संपन्न परिवारों से आने वाले युवाओं को भी नहीं मिलता है.
जब पहली बार निखत को उनके पिता हैदाराबाद के सचिवालय मैदान में लेकर गए तो कोई भी लड़की बॉक्सिंग करती नहीं दिखी. जब ये सवाल मासूम निखत ने अपने पिता से पूछा तो उन्होंने कहा कि दुनिया भले ही मोहम्मद अली जैसे महान बॉक्सर को जानती है लेकिन अली की बेटी लैला भी एक शानदार बॉक्सर थी. ये सुनकर निखत की आंखें चमक उठी थीं.
वर्ल्ड चैंपियनशिप में 4 साल बाद किसी महिला बॉक्सर का गोल्ड जीतना अपने आप में एक बड़ी ख़बर है लेकिन मासूम निखत की हसरत इतनी ही थी कि किसी दिन वो ट्विटर पर ट्रेंड करें.
अब भला उनको ये कौन समझायें कि 200 लोग मिलकर अगर किसी बेकार मुद्दे पर एक साथ पोस्ट करना शुरु दें तो वो मुद्दा ट्रेंड हो जाता है लेकिन जो निखत ने इस्तांबुल में हासिल किया है और पेरिस ओलंपिक्स के लिए उम्मीदें जगाई है ऐसा तो दो लाख से भी ज़्यादा बॉक्सर दो दशक के मेहनत के बाद भी हासिल नहीं कर पाते हैं.
आख़िर निखत से पहले सिर्फ 4 महिला बॉक्सर ही तो पिछले दो दशक में वर्ल्ड चैंपियनशिप में गोल्ड हासिल कर पाए हैं. सलाम निखत के जज़्बे को क्योंकि ये तो सिर्फ एक शुरुआत है.

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